Friday, November 7, 2014

एक कहानी

निस्तेज सी पड़ी 
जमीन पर वो 
चिरनिद्रा बसाए 
बुझे नयनों में 
असीम शांति है 
मुख पर उसके 
और सामने बैठा है 


जो शख्स वो बहुत 
ख़फ़ा उससे 
घूरता उसे, कैसे ?
उससे पूछे बगैर 
वो सो रही 
एक मीठी नींद 
हाँ आज तक 
जो उसने चाहा 
वहीँ तो करती आई वो 
उसने कहा मुस्कुराओ 
तो मुस्कुरा दी वो 
आँखों में प्रेम सजाये 
उसने कहा प्यार करो 
तो टूटकर सिमट गई 
आगोश में उसके 
उसने कहा दुखी है मन 
तो उसके दुःख से 
भीग उठा अंतस उसका भी 
और मासूम सा 
चेहरा उसका 
दुःख की बदली में 
छोड़ आया अपनी मुस्कान 
उसने कहा बेचैन हूँ मैं 
तो उसकी बेचैनी 
रातों की करवटें 
बन गई उसकी 
उसने कहा 
सुख की चाह है मुझे 
तो सुख की परिभाषा 
बन गई वो 
उसकी ख़ुशी उसकी चाह 
उसका प्रेम उसका दुःख 
हाँ उसे ही तो जीती आई वो 
और भूल गई खुद को 
अपने वजूद को 
बना स्वयं को परछाई उसकी 
लेकिन आज कैसे ?
उससे पूछे बगैर 
चल पड़ी वो 
एक अनजान सफ़र पर 
अकेली बेबाक 
बिना उसकी इज़ाज़त के 
अपनी मर्यादा से परे 
ठुकराकर उसका प्रेम 
और स्वयं उसे 
शायद सहने की 
इंतिन्हा की तपिश 
या फिर मुक्ति की राह 
या विद्रोह मूक सा 
कर गया विवश उसे 
या फिर लगा उसे 
यहीं एकमात्र जरिया 
अपने हिसाब से जिन्दगी से 
कुछ पल चुरा लेने का
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