Monday, December 8, 2014

प्रेम स्वरुप

सुघड़ स्त्री संस्कारी स्त्री 
कर्तव्य-परायण स्त्री 
सहनशील परोपकारी 
ममतामयी स्त्री 
जो कुछ आता 
उसके कर्तव्यों की परिधि में 
बड़ी निपुणता सजगता के साथ 
करती निर्वाह उसका 
स्त्री सखी सहयोगी जीवन-संगिनी 
हर रूप में होती मुस्कुराती खड़ी स्त्री 

उसके अंतस की पीड़ा 
फफोलों सी हो जाने पर भी 
अपनी आँखों के तैरते समुंदर को 
सहज भाव से छिपा लेती अपनी मुस्कराहट में 
भरी आँखों से मुस्कुराने का हुनर 
जाने कब आ गिरा उसकी झोली में नेमत सा 

और जब अपनी परिधि से परे 
कुछ कर बैठती वो 
तुरंत कटघरे में खड़ी कर दी है जाती 
यकायक अन्तर्यामी हो उठता हर मन 
बेढब हो जाते स्त्री के सब रंग ढंग 
हर तरफ से उठती उँगलियाँ उसकी तरफ 
जो बेध जाती उसके अस्तित्व को 

इतनी चालाकी त्रियाचरित्र की स्वामिनी स्त्री 
प्रेम के सीधे से समीकरण को पुरुष के 
क्यों नहीं है समझ पाती ? 
कि प्रेम तन की परिधि से बंधा होता है 
कि मन का समर्पण प्रेम को कब प्रदान कर पाया पूर्णता 
क्यों वो ठगा सा है महसूस करती ?
जब योनी का आकर्षण उसके प्रेम पर हावी है हो जाता 
प्रेम में सम्पूर्ण समर्पण के नाम पर 
अपना सब कुछ लुटा देने वाली स्त्री 
क्यों पछतावे की अग्नि में भस्म कर देती अपना सर्वस्व ?

उसका मूढमति होना हाँ यहीं है कारन 
जो वो नहीं कर पाती सही आकलन 
पुरुष के प्रेम दर्शन का सही मायनों में 
जिसे वो समझती पुरुष का वासना प्रेम 
वो तो पुरुष का बड़प्पन है,
जो बनाता है पुरुष को सर्वश्रेष्ठ 
और इसी प्रेम से वो स्त्री के नारीत्व को पूर्णता है प्रदान करता 
और इसीलिए पुरुष के प्रेम से विलग 
जो स्व की तुष्टि पर निर्भर होता पूरी तरह 
प्रेम का कोई स्वरुप हो ही नहीं सकता
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