Friday, October 10, 2014

पेंडुलम सी जिन्दगी

पेंडुलम की टिक टिक सी दिल की धड़कन और ख़ामोशी के सायें हाँ शांति है चहुँ ओर सन्नाटे की चादर ताने
शांति जानते हो कैसी ? तूफ़ान के पहले सी जाने कब लहरे आवेग में खो दे अपना संतुलन मौसम बिगड़ जाए काले काले बादल घिर आये और बरस जाए
लेकिन ये बारिश तपन देती है इस तपन से गरमा जाता है माहौल सारा चुभता कुछ फांस सा पीड़ा का एहसास बेचैनी भर जाता अंतस में
इसी ओह्पोह की हालत में मन को समझाने का निरर्थक सा प्रयास है जीवन कभी समझ पाता मन और कभी रह जाता बहुत कुछ उलझा हुआ
बस ऐसे ही चलती है जिन्दगी कभी मुस्कुराहट में अपनी पीड़ा को सहेजती कभी बेचैनी छू जाती सांसों को उसकी
फिर अगले ही पल सारी परेशानियों को सहेज कर रख देती वो एक आले में और निकल पड़ती खुद से बतियाती मुस्कुराती खो जाती है खुद में ही कहीं
बिताती खुद के साथ कुछ समय वो ऐसे ही जैसे अज्ञातवास में हो आत्मा के साथ चिंतन के वो पल गुनते बुनते बहुत कुछ टूटता बिखरता जुड़ता आकार लेता उसके भीतर नया कुछ
और फिर लौट आते है कदम उसके दिवास्वप्न में डूबी तंद्रा के भंग होने पर जैसे भान होता यथार्थ के कठोर धरातल से टकराने का वैसे ही कदम उसके रिश्तों की डोर से बंधे लौट आते वापिस उसी राह पर जो राह जाती उसके जहान तक
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शुक्रिया