मन की किताब हर हर्फ़
हाथ की लकीर सा
लेता आक़ार
हर पन्ने से जीवंत हो एहसास
पंख लगा लगते है
उड़ने पंछी से
अंनत का आकर्षण
उसका मोहपाश
खीच रहा जैसे उन्हें अपनी ही ओर
हर्फ़ों का भी होता
अपना ही जहां
जहाँ विचरते स्वच्छंद
वो यहाँ वहां
कुछ हर्फ़ कशमकश में
डूबते उतरते
बौराई लालसाओं से
भटकते दौड़ते
निरंतर शून्य में दौड़ते
वैसे ही जैसे
एक भ्रूण
अपने अस्तित्व की
अंधी दौड़ में दौड़ता सरपट
चाह प्रथम आने की
वजूद के स्थायित्व को वरने की
कुछ शब्द क्लांत से
अपने में गुम
अनमने से
कोई कोना
ढूंढते सीला सा
जहाँ वो पा सके पनाह
कुछ शब्द ऐसे भी
जो
मुस्कान है समेटे
अपने आँचल में
हँसते खिलखिलाते
और आँखों में बस है जाते
सुनहरे स्वप्न से
और इस तरह मन की किताब
उसका हर हर्फ़
सहलाता दुलारता
हँसता रुलाता
कभी उदासी से भर जाता
लेकिन फिर भी हर शब्द
मन की किताब में
पनाह पा ही जाता ..........है ना
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शुक्रिया