Tuesday, September 4, 2012

शशक्त हम


धरा है बोझिल आज पाप तले
चहुँ ओर बस हाहाकार व्याप्त है
कहीं चीर हरण बेबस द्रोपदी का
भ्रष्टाचार का होता यहाँ शंखनाद है

रोज़ चढ़ता स्वार्थ की बलि बेदी पर
आम आदमी कर रहा त्राहिमाम है
ईश्वर भी है मौन, रोती खून के आसूं
इंसा की बेबसी, होता यहाँ तांडव नाच है

लाचार टूटते सपनो संग मानुष
कंठ अवरुद्ध, जीने को अभिशप्त है
आज बिकता ईमान कोड़ियों के भाव
नित इंसानियत का होता यहाँ क़त्ल है

कब तक रहेंगे बेबस यूहीं आसूं
उठो और जागृत करो सुप्त मन को
भर दो खुद मे शक्ति और अग्नि
दिखला दो हम कितने शाश्क्त है........किरण आर्य
 

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शुक्रिया