Tuesday, July 24, 2012

अस्तित्व बोध



तुम सागर अथाह प्यार के.........,
मैं तटस्थ खड़ी किनारे पर सोचती हुई,
क्या अंजुलि मे भर पाऊँगी तुमको मैं कभी?

या रेत के मानिंद फिसल जाओगे उंगलिओ से मेरी,
इसी उहो पो मे खड़ी थी मैं विकल बड़ी,
तभी एक विचार ने दस्तक दी और खोली दिल की मेरी कड़ी,
क्यू ना मैं नदी बन जाउ कल कल बहती हुई !!
और विलीन हो जाउ तुममे उस पल समाती हुई,
मिटा दू अस्तित्व  अपना और बन जाउ हिस्सा तुम्हारा,
ना रहू तुमसे अलग और बनू किस्सा तुम्हारा !!

उसी क्षण पा लिया तुम्हे संपूर्ण रूप मे मैने,
और मिट गई मन की सारी तृष्णा.....,
क्यूकी जान गई मैं उसी एक क्षण मे,
कि तुम ही मोहन मेरे,तुम ही हो कृष्णा !!

तुम मे समा कर अस्तित्व  विहीन नही हुई मैं,
अब तुम मे ही झलकता है व्यक्तित्व मेरा,
अब मन मे नही है विचारो की लहर,
अब मन शांत है मेरा, आश्वत थमती लहरो सा !!

अब तुम मे हू मैं, और मैं बन गई तुम,
तुम आईना हो सोच का मेरी, मेरा अस्तित्व हो तुम !!


- किरण आर्या

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